दफ़्तरनामा : ‘एक्स्ट्राऑर्डिनरी’ करते हैं तो ‘ऑर्डिनरी’ बन कर रह जाएंगे
–डॉ. अनन्या मिश्रा
–दफ़्तरनामा: “एक इवेंट ने इतना थका दिया है… वो तो अच्छा है कि हमें शनिवार-रविवार मिल जाता है आराम करने… वरना हम तो मर ही जाते! किसी ने थैंक्स तक नहीं बोला!” – मुझसे हाल ही में किसी ने कहा। मैं मुस्कुरा दी। आगे बोले, “हंसों मत! तुम्हारी तो प्रोफाइल ही ऐसी है… तुम्हें क्या फर्क पड़ता है! कुर्सी पर तो बैठे रहना है!”
मैं सन्न। पूछा, “प्रोफाइल ही ऐसी है मतलब?”
“तुम्हारा तो काम ही है… दिन में दो-चार पोस्ट कर दो, काफी है! दिन-रात काम की आदत तो है तुम्हें। फटाफट कर ही देती हो तुम काम”।
“ये जो काम मैं अब कुर्सी पर बैठे-बैठे “फटाफट” कर लेती हूँ, उसमें मेरी कई सालों कि मेहनत है। वो शायद अब बिलकुल भी नहीं दिखती है – किसी को भी!”
किसी भी कार्यक्रम की सफलता सभी के छोटे-बड़े योगदान से होती है। कुछ लोग कार्यक्रम के तीन महीने पहले से तैयारी कर रहे होते हैं, तो कुछ एक सप्ताह पहले से। कुछ मेरे जैसे होते हैं जो उस कार्यक्रम को जन्म लेता हुआ देखते हैं। उसकी प्लानिंग करते हैं। कैसे होगा, कहाँ होगा, कौन आएगा, क्या बोलेगा, बैनर कौनसे लगेंगे, कितने लगेंगे, उसकी डिजाईन कैसी होगी, थीम क्या होगी, कैमरे कितने होंगे, मेहमानों का सम्मान कैसे होगा, क्या देंगे, संचालन कौन करेगा – यहाँ तक कि वह संचालन में क्या बोलेगा, मंच पर क्या रहेगा, कितनी देर के लिए रहेगा, कार्यक्रम की गति में हम हमारी दिल की धड़कनों को झोंक देते हैं। फिर धन्यवाद ज्ञापन में जहाँ कैमरा वाले से लेकर स्वच्छता दीदी और भाईयों तक को याद रखा जाता है, वहां हम अचानक से अदृश्य हो जाते हैं। लोगों को दिखाई देना बंद हो जाते हैं।
ऐसा नहीं है कि वे भूल गए हैं। उन्हें हम याद आते हैं अगले दिन – अपने-अपने फोटो के लिए। वो फोटो जो हम अपने ऑफिस में देर रात बैठ कर एडिट कर रहे थे, जब सब रात्रिभोज का आनंद ले कर सो चुके थे। ऐसा भी हुआ है कि कई बार आईडिया सभी हम दें और उस कार्यक्रम में खास न रहे। यह भी, कि मेहमान ही हमने बुलाए, लेकिन नेपथ्य में भेज दिए गए -तब जब उसी मेहमान के साथ अन्य लोग स्पेशल लंच में शामिल होते रहे। कुछ के साथ तो ऐसा भी हुआ है कि कुछ काम सिर्फ इसलिए सौंपे गए क्योंकि लड़की हैं- इसलिए नहीं कि काबिल हैं। और कुछ में इसलिए पीछे धकेल दिया गया क्योंकि लड़की हैं।

कभी वर्क फ्रॉम होम किया तो कईयों ने संदेह जताया कि इसको कैसे अनुमति मिल गयी। इसलिए, कि मैं वाकई में वर्क फ्रॉम होम करती हूँ। मेरी कुछ सर्जरियां हुई। यकीन मानिए मैंने हर सर्जरी के पहले एक माह का काम एडवांस में कर के रखा – और मैंने ईमेल इस प्रकार से शेड्यूल किए कि सम्बंधित व्यक्तियों को उसी समय मिले जब उनकी ज़रूरत हो ताकि कोई समस्या न आए। ऐसा नहीं है कि स्वास्थ्य के अलावा अन्य समस्याएँ नहीं आयीं। घर में पालतू बच्चे को खो देने पर, परिवार में आपातकालीन स्थिति आ जाने पर भी मैंने समय निकाल कर काम पूरा किया। तब भी किया जब किसी और विभाग का था और वे जानते थे कि मैं किस स्थिति में हूँ। पर उन्हें लगा कि कुर्सी पर तो बैठे रहना है!
आप कह सकते हैं कि सभी करते हैं। आप यह भी कह सकते हैं कि सभी सौंपे हुए काम से ज्यादा ही करते हैं तो कोई ख़ास बात नहीं है। और आप यह भी कह सकते हैं कि पैसे किस बात के मिल रहे हैं। पिछले सप्ताह किसी ने यह भी कहा कि वेतन मिल ही इस बात के लिए रहा है कि तुम वो सब करो, और अधिक करो, जो तुम अभी कर रही हो।
पर बात यहाँ धन की नहीं है। मानसिकता की है। उस सोच कि जो आपको ये मान लेने के लिए विवश कर चुकी कि काम चार सोशल मीडिया पोस्ट कर देने का है। या उस अन्धकार की जिसमें आपको मैं मंच की चकाचौंध में दिखाई नहीं देती। या उस कल्पना की जिसने मेरी मेहनत को, कला को और समय के महत्त्व को क्षीण मान लिया।
ऐसा है, कि जब भी मैंने कुछ “एक्स्ट्रा” करने की कोशिश की, कोई नया प्रस्ताव दिया, कुछ नया सुझाव दिया – फिर भले ही वह मेरा व्यक्तिगत न हो… उसे टाल दिया गया… और हर छोटा-बड़ा काम जो मेरा था ही नहीं, वो सिर्फ भलाई के नाम पर ‘दो मिनट निकाल कर फेवर कर दो’ करने के लिए दिल से किया, उसका कोई ‘फ्लेवर’ नहीं रहा।
जब भी किसी भी काम में अपनी आत्मा झोंक दी, उसे ‘साधारण’ मान लिया गया-कि हाँ, ये तो वो कर ही लेती है। दो मिनट में कर देगी। इसमें क्या नया है। उसके पीछे की मेहनत, प्रयास, दिमाग, समय, समर्पण-ये सब व्यर्थ हो चुका। दो-दो मिनट करते हुए कितने घंटे बीत गए-वो किसी ने नहीं गिने।
हाल ही में एक फिल्म का डायलॉग सुना और इसने दिल चीर के रख दिया – “जहाँ पर हम एक्स्ट्रा करना चाहते हैं ना, वो आपको लाइफ में उतना ही ऑर्डिनरी बना देते हैं- और ज़िन्दगी में उससे बड़ा दुःख और कोई नहीं”।
काम तो करना ही है- कर भी रहे हैं। बस हम थोड़ा एक्स्ट्रा करते हैं क्योंकि ‘एक्स्ट्राऑर्डिनरी’करने की आदत है। पर हमारा वो ‘एक्स्ट्रा’होना, अब ऑर्डिनरी रह गया है।
